Wednesday, December 9, 2009
तेरे तक पहुंची क्या सदा तेरी जो निकली मेरी ज़बान से
तेरे तक पहुंची क्या सदा तेरी जो निकली मेरी ज़बान से,
हम तो हो गये तेरे शहर में अब तेरे ईश्क के मेहमान से.
किसी-किसी को क्या खूब हुनर देता है तू मेरे मालिक,
उसकी नजाकत जैसे शबनम बूंदे गिरती हो आसमान से.
अब पता लगने लगा दुनिया में होते हैं दिन और रात भी,
जाने कहा खो गये थे जी रहे थे जाने क्यों गुमनाम से.
जो पीछे छूटा था कभी लगता है वो दोबारा हासिल हुआ,
जिसमें डूब गये थे मेरे अरमा शिकवा नहीं उस तूफान से.
जो कभी थे अजनबी आज इतने करीब हो गये हैं दिल के,
बताओगे मेरे बिना पहले क्या तुम भी रहते थे सुनसान से.
गुज़रे दौर से हालत का सामना शायद फिर करना पड़े मुझे,
फिर खुद को रूबरू पाया ईश्क के एक और इम्तिहान से.
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