Sunday, December 20, 2009

अपना मज़ा था एक अजीब सा नशा था बिछड़ी मुलाकातों में


अपना मज़ा था एक अजीब सा नशा था बिछड़ी मुलाकातों में,
याद आता है मुझे कितना मज़ा था भीगने का उन बरसातों में.

तुम कहती थी लिखों मेरे लिए भी कुछ तुम हमदम आज ज़रा,
फिर था कैसे सोच में डूब जाता उन दिलकशी सुहानी रातों में.

याद आज भी है मुझे किस कदर था दीवाना बनाया आपने,
कैसा दौर था आता ज़िक्र तेरा ही मेरी कही अनकही बातों में.

क्यों तू चला गया यूँ मुझे तू तन्हा रोता हुआ क्यों छोड़ गया,
आज भी खुश्बू तेरी ही आती मेरे हर एक मर गए ज़ज्बातों में.

तेरा तस्सवुर कैसे मिटाऊ अपने दिल से ए मेरे बिछड़े हमदम,
तुझे ही दी थी इज़ाज़त आने की अपने हर एक ख्यालातों में.

मैं हार गया मुझे इतना हुनर नहीं दिया तुने ए मेरे मालिक,
हारने की दास्ता लिखी थी मेरी किस्मत के हर एक बिसातों में.

आज तुझे ही खोजती मेरी नज़र हर एक जर्रें में यहाँ दिलबर, 
लोगों को नहीं पता ज़वाब तेरी सदा आये मेरे हर सवालातों में.

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