Sunday, December 13, 2009

ख्वाहिशों के मंजिल का सफ़र, किसी से गुफ्तार हुयी है



ख्वाहिशों के मंजिल का सफ़र, किसी से गुफ्तार हुयी है,
पतझड़ का मौसम बिता, जिंदगी फिर गुलज़ार हुयी है.

कभी-कभी मिल जाते हैं राह में कुछ अनजान मुसाफिर,
जैसे दीवानगी में फ़ना होने की तम्मना इख़्तियार हुयी है.

हमने तो कुछ भी ना पाया, पर लुटा दिया अपना सब कुछ,
कीमती हँसी को सब में बाँटा, ये जैसे मुफ्त बाज़ार हुयी है.

मेरी सांसे कभी तो थमेंगी इस गुज़रते दौर के दरमियान,
अब मेरी आरजू की मंजिल उसके लिए जानिसार हुयी है.

मैंने लाख रोका, मैंने खुद को जाने कितनी बार है टोका,
पर मेरी रूह उसकी ही सरफिरस्ती में गिरिफ्तार हुयी है.

शायद मेरे हाथ की लकीरों में लिख दिया मेरे मालिक ने,
जिस्म के खून की हर एक बूंद जो उसकी दिलदार हुयी है.

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