मैं क्या बोल़ू मेरी आँखों में देखो उसका ही इक नाम है,
जो मुझ से कोशों दूर, वो ही मेरी आरजू का मुकाम है.
मै क्या बयां करू महफ़िल में, अंजानो की ये महफ़िल है,
जो जुर्म कभी किया नहीं उसका भी मुझ पर ईल्ज़ाम है.
गुज़र गया वक्त छोड़ गया मेरे आशियाने में गहरी दरारे,
आज उसी दर्द को झेल रही जिंदगानी हर सूबे शाम है.
मैं इक आवारा सा मुसाफिर, नहीं जिसका कोई भरोसा,
अपने अंजुमन में खोना पसंद, बस यही तो मेरा काम है.
यहाँ दीवारों पे लिखी जाती हैं ईश्क के रहमत की बातें,
इसके सुकून के अहसासों को बताने वाले यहाँ तमाम हैं.
मैं भी कभी बहक जाता हूँ दो पल को उनकी बातों में,
पर नसीब में नहीं ये सब मुझे बस तन्हाई में आराम है.
Friday, December 11, 2009
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