कायनात में फिरते वो बेनकाब बिन बादल बरसात हुयी है,
क्या माहताब क्या गुलाब मुदद्तों बाद मुलाकात हुयी है.
ख्वाबों की कैदगाह का सख्त कफस टूटा हो जैसे आज,
मिला हिसाब को हिसाब हुआ धोखा रंगीन हयात हुयी है.
ए दरिया तेरा शुक्रिया देखी तुझमें आज सूरत है अपनी,
घाटी में हरियाली रंग पर कहा मौजों की शुरुआत हुयी है.
अब तो पत्थर से भी बदतर हो गया नाज़ुक सा दिल,
बिता जो मुझ पे बिता दर्द की भी क्या कोई जात हुयी है.
आदतों में बदल चूका हूँ, पहले सा अब रहा कहाँ हूँ,
मात ही मात हुयी है कब्रों से भला किसकी बात हुयी है.
सहर ने बताया मुझे आज रोज़ कुछ तो होगा ख़ास,
वक्त पे तो वो काम ना आया फिर वही बेदर्द रात हुयी है.
Saturday, January 30, 2010
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