शराबों में नहीं जो नशा, वो आज तुम अपनी नज़र से चढानें लगे,
ज़रा बताओं क्या बात हुयी जो चाहत के गीत यूँ गुनगुनाने लगे.
ये वक्त जैसे बंद मुट्ठी में रेत सा, आज फिर हाथों से निकल गया,
कहानी परियों की सुना, हाय तुम क्यों इतनी जल्दी अब जाने लगे.
आपकी सोच में अपने हर लब्ज को आज रंगों से जैसे सजों रहा,
लगता है ग़ज़ल को शराब बना, आज खुद को ही हम पिलाने लगे.
बहुत नज़ारे हैं यहाँ, सब में एक अलग आरजू नज़र आये हमें,
हर नज़र की नज़रों के जादू से, हम खुद को अब यहाँ बचाने लगे.
तम्मना का अहसास फिर से जगा, रोशन सा जहाँ महसूस हुआ,
हर दर्द हर सोज़ को ए मेरे सनम, आज फिर हम जैसे हराने लगे.
ईश्क का दौर कभी आसां नहीं, मुश्किल ये राह है दिलवालों की,
याद आया गुज़रा वो दौर, आज फिर उस नाकामी से घबराने लगे.
Wednesday, January 13, 2010
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