Sunday, April 11, 2010

आज फिर ईक कदम उस ओर बढ़ाना चाहा

दिल की आवाज़ को लबों से सुनाना चाहा,
खुद को ही खुद का हाल दिखाना चाहा.

अपने सपनों के आशियाने की तलाश में,
दुनिया की भीड़ में ग़मों को छुपाना चाहा.

आँखों के अश्कों का समंदर काम आया,
जब-जब ज़माने ने निगाहों से गिराना चाहा.

चेहरे की खिलती इस हँसी की खातिर,
दर्द की आग में अरमानों को जलाना चाहा.

अपनी ही कमियों पे पर्दा डालने के लिए,
साख पर बेवफाई का ईल्जाम लगाना चाहा.

कभी तो किनारे की ज़मीं हासिल होगी मुझे,
आज फिर ईक कदम उस ओर बढ़ाना चाहा.


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